
वक़्फ़ की पेशी, जब अदालत ने मिल्लत की तरफ़ देखा
वक़्फ़ की पेशी, जब अदालत ने मिल्लत की तरफ़ देखा
जौवाद हसन ( रोजनामा इंडो गल्फ,राष्ट्रीय हिंदी दैनिक समाचार पत्र )
कभी-कभी इंसाफ़ की अदालतें वो सवाल पूछ लेती हैं जो सदियों से ज़बानों पर कांटे बनकर अटके होते हैं। 16 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट की एक सख़्त लेकिन संजीदा सुबह में एक ऐसा ही सवाल उठाया गया-एक ऐसा सवाल जो न सिर्फ़ सरकार की नीयत को बेनक़ाब करता है, बल्कि मुसलमानों की खामोशी और बेहिसी को भी आईने की तरह सामने रख देता है:
“अगर वक़्फ़ काउंसिल में हिन्दू सदस्य हो सकते हैं, तो क्या हिन्दू धार्मिक बोर्ड में किसी मुसलमान को सदस्य बनने की इजाज़त है?”
ये महज़ एक सवाल नहीं था-ये एक तहज़ीबी तंज़ था, एक कानूनी तमाचा, और एक सियासी नक़ाबकशी। अदालत ने जिस सहजता और सादगी से यह बात कही, उसमें सदियों की सियासी चालबाज़ियों, क़ानूनी छल-कपट और मज़हबी हस्तक्षेपों की पूरी इबारत छुपी थी।
दो घंटे तक चली सुनवाई में जब याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वकील अपने तर्कों के पायदान पर चढ़ते गए, तो अदालत की आंखों में सिर्फ़ तर्क की नहीं, बल्कि इंसाफ़ की चमक दिखाई दी। दूसरी तरफ़, सरकार की ओर से जो सफ़ाई पेश की जा रही थी, वो ज़मीन पर पड़े धूल भरे परदों जैसी थी-जिन्हें झाड़ा तो गया, मगर साफ़ कुछ भी न हुआ।
अदालत ने “वक़्फ़ बाय यूज़र” जैसे प्रावधान पर सवाल उठाया, जो मुसलमानों की मीरास को “कब्जे की सहूलियत” बना देने की सरकारी कोशिश का सबसे बदनुमा चेहरा है। अदालत का यह कहना कि “हम अगले आदेश तक इस कानून में किसी भी बदलाव की इजाज़त नहीं देंगे,” एक ऐसा पड़ाव है जहां इंसाफ़ ने वक़्फ़ की रूह को ज़ख्म देने से पहले मरहम लगाने की कोशिश की है।
आप सोचिए, जिस कानून को लाने का दावा बड़े-बड़े फाइलों और दावों के साथ किया गया था, उसी पर सरकार 24 घंटे में जवाब तक न दे सकी। क्या ये अजीब इत्तिफ़ाक़ है, या सोची-समझी रणनीति? अदालत ने सात दिन का वक़्त दिया है-मगर यह सात दिन सिर्फ़ सरकार के लिए नहीं हैं; यह वह मुद्दत है जिसमें मिल्लत की ज़िम्मेदारी और तंजीमों की जवाबदेही का भी इम्तिहान होने वाला है।
वक़्फ़ बाय यूज़र का मतलब सीधा-सीधा यह है कि जिन ज़मीनों पर सालों से कोई बैठा है-चाहे गैर-क़ानूनी हो या सियासी ताक़त से लैस-उसे वहां का ‘हक़दार’ मान लिया जाए। और ये कब्ज़े अक्सर उन्हीं के होते हैं जिनके पास नीयत नहीं, लेकिन नेटवर्क होता है-सरकारी कुर्सियों से लेकर बिल्डर लॉबी तक।
और ऐसे में, जब सुप्रीम कोर्ट सवाल उठाता है, तब मुसलमानों की सियासी तंजीमें खामोश हैं, वक़्फ़ बोर्ड मुन्तज़िर है, और मिल्लत अपने ही वजूद से बेख़बर मालूम होती है। हज़ारों करोड़ की वक़्फ़ जायदाद, मस्जिदें, कब्रिस्तान, मदरसे-सब आज कानून की उलझनों और सियासी साज़िशों की ज़द में हैं। मगर वो कौम जो कभी इन इमारतों की रूह थी, आज किसी फाइल का हिस्सा तक नहीं बन पा रही।
वहां हैं वो आवाज़ें जो कौम के नाम पर चंदा लेती हैं? वहां हैं वो मजलिसें जो इत्तिहाद की बातें करती हैं? क्या वक़्फ़ के नाम पर सिर्फ़ सालाना रिपोर्ट और दौरे ही रह गए हैं? सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने अगर कुछ साबित किया है, तो यही कि अदालतें जाग रही हैं, लेकिन क़ौम अब भी ख़्वाब में है।
वक़्फ़ क़ानून पर यह अदालतनामा एक शुरुआत है, एक दरवाज़ा है, एक रोशनी की किरन है। अगर मिल्लत अब भी उस दरवाज़े से ना गुज़री, तो आने वाली नस्लें वक़्फ़ की इमारतें तो देख लेंगी, लेकिन उस तहज़ीब और तालीम की रूह से हमेशा महरूम रहेंगी जिसके लिए ये वक़्फ़ वजूद में आए थे।
तो आइए, आज जब अदालतें हमारी ज़मीन की आवाज़ बन रही हैं, हम अपनी ज़मीर की आवाज़ को भी ज़िंदा करें। ये वक़्त अदालत से बाहर निकलकर इंसाफ़ की राह पर चलने का है-वरना वक़्फ़ की दीवारों के साथ हमारी तहज़ीब भी ढह जाएगी, और हमारी चुप्पी उसका सबसे बड़ा सबूत बन जाएगी।