
समान नागरिक संहिताः समय की मांग और आगे का रास्ता
समान नागरिक संहिताः समय की मांग और आगे का रास्ता
समान नागरिक संहिता (UCC) भारत में एक महत्वपूर्ण संवैधानिक एवं सामाजिक विषय है। यह एक ऐसा कानून होगा, जो सभी नागरिकों के लिए समान व्यक्तिगत नियमों को लागू करेगा, चाहे उनका धर्म, जाति, या लिंग कुछ भी हो। वर्तमान में, भारत में विभिन्न धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ (हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी आदि) लागू हैं, जो विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे मामलों को नियंत्रित करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कही गई है, लेकिन यह अभी तक केवल गोवा में आंशिक रूप से लागू है। यह बहस इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता, लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय से सीधे जुड़ी हुई है।
समान नागरिक संहिता की आवश्यकता के संबंध में दिए जाने वाले प्रमुख तर्कों में लैंगिक समानता प्रमुख है। वर्तमान पर्सनल लॉ कई बार महिलाओं के अधिकारों को सीमित कर देते हैं, खासकर मुस्लिम पर्सनल लॉ में तीन तलाक, हलाला, बाल विवाह और बहु-विवाह जैसी प्रथाएं। यूसीसी लागू होने से पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित किए जा सकते हैं। इसके साथ ही राष्ट्रीय एकता और समरसता में वृद्धि हेतु भी यूसीसी की मांग जोड़ पकड़ रही है, विभिन्न समुदायों के अलग-अलग पर्सनल लॉ भारत की एकता के सिद्धांत के विरुद्ध हैं। समान नागरिक संहिता सभी नागरिकों को एक ही कानून के दायरे में लाकर सामाजिक समरसता को मजबूत कर सकती है। इसी क्रम में ये भी ध्यातव्य है कि विभिन्न पर्सनल लॉ होने के कारण न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ जाती है। एक समान कानून होने से न्याय प्रक्रिया तेज और प्रभावी होगी। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, लेकिन विभिन्न पर्सनल लॉ धर्म-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। यूसीसी इसे खत्म कर एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की नींव रखेगा। साथ ही यूसीसी को लेकर कई चुनौतियाँ और विरोधी स्वर भी गूंज रहे है। कई धार्मिक समूह इसे अपनी परंपराओं और धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला मानते हैं। विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय का मानना है कि यूसीसी इस्लामी कानून (शरिया) में हस्तक्षेप करेगा। इसके साथ ही कई बौद्धिक समूहों का मानना है कि यह प्रयास सांस्कृतिक विविधता के लिए एक चुनौती बन कर उभरेगा। भारत की विविधता इसकी पहचान है। देश में इतने विभिन्न पर्सनल लॉ होने के कारण यूसीसी लागू करना एक जटिल प्रक्रिया होगी, जिसके लिए व्यापक सहमति और विचार-विमर्श आवश्यक होगा। इन तमाम समर्थन और विरोध के बीच उत्तराखंड ने 27 जनवरी, 2025 को समान नागरिक संहिता लागू कर दिया है और इस तरह वह ऐसा करने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है। राज्य विधानसभा ने फरवरी 2024 में इस कानून को एक समान कानूनी व्यवस्था बनाने के इरादे से पारित किया था जिसका पालन सभी नागरिक, चाहे उनकी धार्मिक मान्यताएँ कुछ भी हों, कर सकें। सभी समुदायों में महिलाओं को समान अधिकार देने वाले इस कदम की लैंगिक समानता की दिशा में एक कदम के रूप में सराहना की गई है। यह विधेयक राज्य के सभी निवासियों के लिए विवाह, तलाक, संपत्ति की विरासत, और लिव-इन रिलेशनशिप पर एक समान कानून का प्रस्ताव करता है, चाहे उनका धर्म या आस्था कुछ भी हो। हालांकि, अनुसूचित जनजातियों को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है। इसकी प्रमुख विशेषताओं में विवाह के 60 दिनों के भीतर अनिवार्य पंजीकरण का प्रावधान है। विवाह के समय किसी भी पक्ष का अन्य जीवित जीवनसाथी नहीं होना चाहिए, जिससे द्विविवाह या बहुविवाह पर रोक लगती है। तलाक के संबंध में पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं। तलाक के आधारों में व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, दूसरे धर्म में परिवर्तन, मानसिक विकार आदि शामिल हैं। इसके साथ ही लिव-इन रिलेशनशिप का अनिवार्य पंजीकरण आवश्यक है। बेटों और बेटियों को समान संपत्ति अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं, जिसमें अवैध बच्चे, गोद लिए हुए बच्चे और सहायक प्रजनन तकनीक के माध्यम से जन्मे बच्चे शामिल है। विधेयक में मुस्लिम पर्सनल लॉ की कुछ प्रथाओं, जैसे निकाह हलाला और तीन तलाक, को उनके नाम लिए बिना प्रतिबंधित किया गया है। इस विधेयक का उद्देश्य राज्य में लैंगिक समानता, सामाजिक समरसता, और कानूनी एकरूपता को बढ़ावा देना है। हालांकि, इसके कुछ प्रावधानों को लेकर विभिन्न समुदायों और संगठनों द्वारा चिंताएँ भी व्यक्त की गई हैं।
बुद्धिजीवियों में से कई इसे प्रतिगामी प्रथाओं को हटाकर महिलाओं को सशक्त बनाने के प्रयास के रूप में देखते हैं। इसके अलावा, यूसीसी उत्तराधिकार और संपत्ति के अधिकारों को संबोधित करके सभी धर्मों की महिलाओं के लिए समान कानूनी स्थिति की गारंटी देता है। अतीत में, धार्मिक कानूनों की पितृसत्तात्मक व्याख्याओं के परिणामस्वरूप उत्तराधिकार के मामलों में कई महिलाओं के साथ भेदभाव हुआ है। इन असमानताओं को दूर करने और महिलाओं को उनकी सही विरासत के लिए कानूनी सुरक्षा देने के लिए, यूसीसी समान संपत्ति अधिकारों को संहिताबद्ध करना चाहता है। एक और बड़ा बदलाव जो नागरिकों के लिए कानूनी प्रक्रिया को आसान बना देगा, वह है कॉमन सर्विस सेंटर्स (CSCs) के माध्यम से एक केंद्रीकृत ऑनलाइन पंजीकरण प्रणाली की स्थापना। अपने प्रगतिशील पहलुओं के बावजूद, यूसीसी ने धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों को चिंतित किया है, जिन्हें डर है कि उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को कम किया जा रहा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-28 के अनुसार, धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी है, और कई आलोचकों का तर्क है कि एक समान व्यक्तिगत कानून इन अधिकारों का उल्लंघन करेगा। इसके साथ ही समीक्षकों का मत है कि विवाह और लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण और इसके अवमानना पर जुर्माने और कारावास के प्रावधान ने व्यक्ति के निजता के अधिकारों को प्रश्नांकित करने का प्रयास किया है। व्यक्ति और समाज के द्वंद में यह कानून व्यक्ति के अधिकारों को सीमित करता है। लता सिंह बनाम यूपी राज्य (2006) में अदालत ने दोहराया कि 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिला अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति के साथ रहने के लिए स्वतंत्र है तथा अदालत द्वारा विशेष रूप से निर्देश दिया गया कि स्थानीय प्रशासन को लिव-इन संबंधों को परिवार के सदस्यों सहित बाहरी हस्तक्षेप से बचाना चाहिए। ये विसंगतियां यूसीसी के वास्तव में सार्वभौमिक कानूनी सुधार होने के बारे में चिंताओं को बढ़ाती हैं।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि इस्लाम स्वयं देश के कानून के सम्मान की निंदा नहीं करता है। मुसलमानों को कुरान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शासक वर्ग के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखें। पैगंबर मुहम्मद ने इस विचार की पुष्टि की कि न्यायपूर्ण शासकों की आज्ञा का पालन करने के दायित्व पर जोर देकर नागरिक कर्तव्य और आस्था एक साथ रह सकते हैं। धार्मिक मान्यताओं का उल्लंघन किए बिना ट्यूनीशिया और तुर्की जैसे मुस्लिम बहुल देशों में समान पारिवारिक कानूनों को सफलतापूर्वक लागू किया गया है। इसी तरह, गोवा, एकमात्र भारतीय राज्य है जिसके पास लंबे समय से एक समान नागरिक कानून है, जिसने दिखाया है कि विभिन्न धार्मिक समुदाय एक ही नियमों के तहत काम कर सकते हैं। यदि अन्य भारतीय राज्य समान नागरिक संहिता लागू करने के बारे में सोच रहे हैं, तो सभी की राय को शामिल करना महत्वपूर्ण है। समान नागरिक संहिता में भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करने और महिलाओं के अधिकारों को आगे बढ़ाने की क्षमता है, लेकिन इसका अनुप्रयोग निष्पक्ष होना चाहिए। यदि निष्पक्ष और संवेदनशील तरीके से लागू किया जाए और इस प्रक्रिया में सामाजिक सद्भाव और न्याय के प्रति देश की प्रतिबद्धता को मजबूत किया जाए, तो समान नागरिक संहिता भारत में कानूनी समानता के लिए एक मॉडल के रूप में काम कर सकती है।
-प्रो बंदिनी कुमारी